प्रणव दा की अब तक की उपलब्धियों पर नजर डाल कर कुछ अच्छा-अच्छा लिखने का मन कर रहा है। लेकिन समझ में नहीं आ रहा कि बात कहाँ से शुरू की जाये। यह दुविधा इसीलिए है कि मन तो उपलब्धियाँ गिनने-गिनाने का हो रहा है, लेकिन अर्थव्यवस्था की ताजा हालत इस बात की इजाजत नहीं देती कि बीते तीन सालों में वित्त मंत्री के रूप में उनकी भूमिका के कसीदे पढ़े जायें। क्या कहें? क्या
यही कि वित्त मंत्री तो बड़े अच्छे थे, लेकिन उनके जाते-जाते विकास दर बीते कई सालों के सबसे निचले स्तर पर है? क्या यह कहें कि उन्हें सरकार का संकटमोचक कहा जाता रहा, लेकिन वे हमारी अर्थव्यवस्था के संकटमोचक नहीं बन पाये?
किसी देश की मुद्रा की मजबूती या कमजोरी को उसकी अर्थव्यवस्था के दमखम का पैमाना माना जाये तो हमें यही दिख रहा है कि बतौर वित्त मंत्री प्रणव दा के अंतिम दिनों में रुपया डॉलर की तुलना में रिकॉर्ड निचले स्तरों पर आ गया। अगर आम आदमी का हाल देखें तो महँगाई ने सबकी जेब काट रखी है और आम आदमी की दुहाई देने वाली कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार इस महँगाई से निपटने में नाकाम या बेपरवाह नजर आती है। घरेलू निवेशकों का भरोसा जमीन चाट रहा है और विदेशी निवेशकों ने अपनी मु_ी बंद कर ली है। उद्योग जगत का हौसला पस्त है। बीते कुछ समय से देश में काले धन को लेकर जनमानस का उबाल दिख रहा है। लेकिन इस मामले में प्रणव दा को किसी ठोस पहल का श्रेय देना भी चाहें तो कैसे दें, क्या कह कर दें? श्रेय देने लायक कोई पहल होनी भी तो चाहिए ना! न तो काले धन का सृजन रोकने की कोई पहल दिखी, न ही काला धन रखने वालों को कानून की पकड़ में लाने की इच्छा दिखी।
सरकारी खजाना ही कुछ अच्छी हालत में दिखता तो गनीमत होती। आर्थिक सुधारों की गति और दिशा को लेकर बहस हो सकती है। आप इनके पक्ष में या विपक्ष में हो सकते हैं। लेकिन इन सुधारों की जब फेहरिश्त बनेगी, तो किस सुधार के आगे प्रणव मुखर्जी का नाम लिखा जायेगा? प्रत्यक्ष कर संहिता या डायरेक्ट टैक्स कोड (डीटीसी) का तो पूरा मसौदा लिखा-लिखाया मिला था दादा को। लेकिन विचार, समीक्षा और सहमति बनते-बनाते तीन साल से ज्यादा समय निकल गया। वस्तु एवं सेवा कर या गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) पर भी उनके पूरे कार्यकाल में यही सब चलता रहा। आखिर दादा को किस बात की शुरुआत करने या मंजिल तक ले आने या लागू करने का श्रेय दें?
(निवेश मंथन, अगस्त 2012)